"लोग बदल क्यों गए"

आज फहरिस्त इतनी ऊँची है
अब ऊंचाई भी नीची है
कमाने निकले हैं घर से
लेकिन घर वालों ने भी लकीर खींची है
अब शहरो की जिंदगी ने
आराम की साँकर भींची है
बंधी पड़ी है खूंटे पर
फिर भी वह अभी भी जिन्दी है
गांव पड़े है खाली अब
झलक गई बदहाली अब
शहरों ने आबादी खींची है
गांवो की बदहाली सींची है
गांवों के गांव खाली कर गए
न जाने वो लोग क्यों बदल गए
अब तो गांवो की वो तस्वीर भी झूंठी है
जिन्होंने संस्कसरों की तकदीर सींची थी
शहरों के आडब्मर में
न जाने लोग बदल क्यों गए
भूल संस्कार , प्रेम बलिदान
स्वार्थ में बस क्यों गए
न जाने वो बदल क्यों गए
न जाने वो बदल क्यों गए
-सोहन सिंह

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